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ऐ लड़की-3 / देवेन्द्र कुमार देवेश

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ऐ लड़की !
तुझे अब लड़की कहूँ भी तो कैसे ?
अब तो बसा लिया है तुमने
अपना एक नया संसार
समर्पित कर दिया है तुमने अपना वजूद
और समाहित कर लिया है
किसी को अपनी दुनिया में ।
मैं जानता हूँ
हँसी–ख़ुशी स्वीकार किया है तुमने यह सब
पर नहीं जानता
उस मानसिक तनाव,
पारिवारिक ख़ुशियों के दबाव
या सामाजिक स्थितियों के बारे में,
जिनको शायद किसी झंझावात की तरह
झेला होगा तुमने
अपने इस फ़ैसले से पहले ।
मैंने अपनी छोटी–सी ज़िन्दगी में
बहुत कम अवसर पाए हैं फ़ैसला करने के,
पर मुझे ऐसा लगता है
कि कोई भी फ़ैसला अंतिम नहीं होता
परिणति तो एक और केवल एक ही
होती है फ़ैसले की,
लेकिन अवसर अनंत होते हैं ।
मेरे फ़ैसले की घड़ी अभी आई नहीं !