भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लब-ए-गुल की हँसी देगी न तुम को रौशनी अपनी / नियाज़ हैदर

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:50, 8 सितम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नियाज़ हैदर }} {{KKCatGhazal}} <poem> लब-ए-गुल की ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लब-ए-गुल की हँसी देगी न तुम को रौशनी अपनी
ज़रा शबनम के अश्कों में भी देखूँ ज़िंदगी अपनी

हमें क्या ग़म कि हम इक ज़मज़मा-पर्दाज़-गुलशन थे
बहारों को हुई महसूस गुलशन में कमी अपनी

मुझे महफ़िल की नज़रों से नज़र आता है महफ़िल में
गवारा ख़ातिर-ए-रंगीं को है सादा-दिल अपनी

मिरे दिल की तरफ़ इक बार भेजी थी किरन उस ने
भुला दी चाँद ने उस रात से ताबिंदगी अपनी

जो रहबर कारवाँ को मंज़िलों के नाम पर लूटे
बता ऐ हम-सफ़र अच्छी नहीं क्या गुमरही अपनी

ये सब जाम-ओ-सुबू ख़ाली सवेरा तिश्ना-कामी का
कि अब कल के लिए रहने दे कुछ साक़ी-गरी अपनी

शराब ओ शाहिद ओ शहद-ए-तरन्नुम नश्शा-ए-इशरत
इन्हीं में परवरिश पाती रही है तिश्नगी अपनी

निगह गुस्ताख तेवर तुंद कौन आया सर-ए-महफ़िल
‘नियाज़’ आते ही तेरे फ़िक्र सब को हो गई अपनी