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तलाशी / मिथिलेश श्रीवास्तव

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मुखौटों में नहीं था वह
तहख़ाने वाले मकानों में नही था
मूँगफली बेचने वाले के खोमचे में नहीं था
मासूम लोगों के चेहरों पर नहीं था
बुदबुदाते लोगों की
कान लगाकर सुनी गई बोलियों में भी नहीं था
अपने काम पर मर्द-मानुष के चले जाने के बाद
दो कमरों के घरों के मुहल्लों की
तलाशी में नहीं मिला वह
अलमारी और दीवार के बीच की फाँक में भी नहीं था
बच्चे को सुलाती औरत के घर के
पीट-पीट कर तोड़े गए दरवाज़े के
पीछे भी नहीं था
अगवा की कहानियाँ सुन-सुनकर
रजाई में दुबके बच्चों के बीच भी नहीं था वह

उस औरत के घर में भी नहीं था
जो बैठी रही दिन भर अपने घर में
तलाशी की प्रतीक्षा में उस औरत के घर में
भी नहीं रहा होगा
जो अपने घर में ताला लगाकर
किसी दूसरी औरत के घर बैठी थी ।
वह वहाँ भी नहीं था
जहाँ एक औरत चिंतित थी
शहर से बाहर गए
अपने पति की किताबों के बारे में
खोजने वालों के ज़िम्मे भी
बस खोजते रहने का काम था ।