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सूरज का घर / मिथिलेश श्रीवास्तव

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बहुमँज़िला इमारतें
शहर के अँग-अँग पर पसर गई हैं
जिधर भी दृष्टि डालता हूँ
उन इमारतों की सख़्ती से टकराता हूँ ।
 
उगते सूरज की ताज़ा लाली
एक लम्बे समय से मैंने देखी नहीं हैं
याद नहीं डूबते सूरज की उदास आँखों में कब झाँका था
याद है सिर्फ़ कर्त्तव्यपरायण
नियत समय
कर्तव्यबोध
सामाजिक प्राणी
शाम होने से पहले घर लौटना है
चाहे साँस फूल जाती मन टूट जाते ।

दो रोटी की व्यवस्था
मेरी माँ अपने पास ही
कर सकने में समर्थ होती
मैं वहीं होता माँ के पास
जहाँ से सूरज का घर
दस क़दम पर जान पड़ता है
नदी की बेचैनी अपनत्व से भर देती है
अनजाने जाने से लगते हैं
और हवा,
हवा ही होती है ।