भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आज / दुष्यन्त कुमार
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:48, 9 नवम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दुष्यन्त कुमार |संग्रह=आवाज़ों के घेरे / दुष्यन्त कुम...)
अक्षरों के इस निविड़ वन में भटकतीं
ये हजारों लेखनी इतिहास का पथ खोजती हैं
...क्रान्ति !...कितना हँसो चाहे
किन्तु ये जन सभी पागल नहीं।
रास्तों पर खड़े हैं पीड़ा भरी अनुगूँज सुनते
शीश धुनते विफलता की चीख़ पर जो कान
स्वर-लय खोजते हैं
ये सभी आदेश-बाधित नहीं।
इस विफल वातावरण में
जो कि लगता है कहीं पर कुछ महक-सी है
भावना हो...सवेरा हो...
या प्रतीक्षित पक्षियों के गान-
किन्तु कुछ है;
गन्ध-वासित वेणियों का इन्तज़ार नहीं।
यह प्रतीक्षा : यह विफलता : यह परिस्थिति :
हो न इसका कहीं भी उल्लेख चाहे
खाद-सी इतिहास में बस काम आये
पर समय को अर्थ देती जा रही है।