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जिनगी के गीत / सिपाही सिंह 'श्रीमंत'

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सीखऽ भाई जिनगी में हँसे-मुसुकाए के।।

इचिको ना करऽ पीर-तीर के खिअलवा, सिहरऽ ना सनमुख देख मुसकिलवा।
नदी-नाला-परबत फाने के हियाव राख, मुँहवा सुखावऽ ना ई रोड़ा-रोड़ी देख के।
डगरी जिनगिया के टेढ़े-मेढ़े बाटे, भइया, हार ना हिया में सीख मस्ती में गावे के।।

अंगे-अंगे छलनी बनावे काँट-कुसवा, रस लूझे, लेके भागे, स्वारथी भँवरवा।
तबहूँ गुलाब का ना मन में मलाल आवे, गमकि-गमकि करे जग के निहलवा।
रोज फुलवरिया से आवेला सनेस इहे, काँट में गुलाब लेखा सीख अगराए के।।

आन्ही बहे, पानी पड़े, पत्थर से थुराइह, तबहूँ ना पीछे मुँहें बन घुसुकइह
सामने समुन्दर चाहे बड़का पहाड़ मिले तबहूँ ना पीछा मुँहें डेग घुसुकइह।
अमरित पीए के त सभे तइयार बाटे, जहर पी के सीख नीलकंठ कहलाए के

घिरल घटा देख के डेराइले नादानी बा, कवन परवाह यदि पास में जवानी बा
जांगर का भरोसे चीर बादर के करेजा, ओमें बिजली के जोत, ओमें जिनगी के पानी बा।
बिना जोत-पानी के जे घटा-घुटी आवे, सीखऽ तेज सांस का बेआर से उड़ावे के।।

दुखवा का लकम जिनगी के डेरवावे के, हमनी का चाहीं ओके लाते लतिआवे के।
ठोकि-ठोकि खम, अठे साहसी कदम, इहे ढंग हवे हारलो त बाजी पलटावे के।
रोज-रोज भोरहीं जगा के कहे उषा रानी, सीखऽ भाई दुखवो में सुख छितरावे के।।