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बीत गइल मधुमास सुहावन / गणेश दत्त ‘किरण’

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बीत गइल मधुमास सुहावन, साँस-साँस में बिथा समाइल ;
अब बतलाव अइल हा तू, केकर माँग सँवारे हो ?

कतना फागुन गइल, सूल से भरल बदरिया लहराइल ना
कतना कदम अपात भइल, भिनुसार बँसुरिया लहराइल ना
कतना सुख के सेज फूल से सजा-सजा के गइल बिछावल
मन के साध मन मुरझाइल, कबो कजरिया लहराइल ना
सरद पुरनिमा हेरि गइल ना रास रचाइल ;
अब बतलाब अइल ह केकरा के आजु दुलारे हो ?

अँइठत गइल बहुत फागुन जे घाव मिल से कबो भरल ना
दरपन दरकि गइल, हमरा आसा के सोनहुल पाँख झरल ना
कतना देर लगवलीं आड़त लोर आँख के काँट बनि गइल
हमरा तुलसी के चउरा पर घी के सुबहित दिया जरल ना
बहुत दिया के सोत सुखाइल ; चिता प्रान के गइल सजावल।
अब बतलाव अइल हा केकर सिंगार निहारे हो ?

अमराई में कोइलरि कारी कुंहुकि-कुंहूकि कतना छछनवलस
मन का रूख के पुरवइया के लहर बहुत झकझोर हिलवलस
तीरे कालिन्दी का गइलीं बाकी नयन जुड़ाइल नाहीं
जतने सूतल प्रीत दबावल गइल हिया ओतने तरपवलस
दुपहिरिया के धूप सेराइल बेरा सरकि गइल आँचर के
तब कंचन क बरखा बरिसे आइल हमरा द्वारे हो ?