भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धृतराष्ट्री जिनगी / पाण्डेय सुरेन्द्र

Kavita Kosh से
Mani Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:43, 30 सितम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पाण्डेय सुरेन्द्र |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हमार बा अमावस के रात अइसन जिनगी
जेमें हमार प्रान घोंघा अइसन टकटोर-टकटोर के चलेला
आ हमार धृतराष्ट्री कुल-मर्यादा बाँध देबेला
मन गांधारी के निमनो आँख पर पट्टी
चारो ओर फइल गइल बा कुचकुच अन्हरिया
जेमें दुनिया के महाभारत हम देख ना सकीं
खाली सुनीले
आ अपना सोना के सिंहासन से
आउर कस के चिपकीले
ई सिंहासन सोना के ह, इहो हमार सुनले ह,
हमार देखल-बूझल ना ह
काहे कि हमरा त असली आ लोहो के भीम में
कुछुओ फरक ना बुझाला