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काठ के पुल आ पतिआर / रिपुसूदन श्रीवास्तव
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का जाने केतना पानी आ केतना घाम के मारल
ए काठ का पुलिया पर
तू भरल गाड़ी हेलावे के तइआर बाड़-
तहरा मन में नल-नील के नया इतिहास
दोहरावे के कवनो ललक त नइखे ?
आ कि एतना झूर जमाना में-
जब आपने रोंआँ आपन बैरी बा
बिसवास के उकठल काठ में
फेर नया पनका फेंकले बा ?
मउअत के दुख ओतना ना सालेला
जेतना साख-पतिआर के घटल ?
बात झूठ होखे चाहे साँच,
चाहे छूंछ छोहे काहे ना होखे-
एक बेर फेर जिए के मन करता।
एक बेर मुए से मन डेराता।