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रूप के धूप / सत्यनारायण सिंह

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रूप के धूप भी
बहुत तेज होखेला
प्रेम से घटा बनके घेरल जाला !
उर्वशी-रम्भा-मेनका के कहानी में
आज भी रस के निर्झर झरेला, साथी !
आँख से भागेला नीन, मन उझकेला
आन-फान में बहुत बिगड़ेला, साथी !
रूप के वंशी में
बहुत शक्ति होखेला
प्रेम के साँस जे जब-तब टेरल जाला।
इतर के काम ह सुगन्ध बाँटेके
एक फाहा भी महमहा देबेला
ठोस फाहा भी महमहा देबेला
ठोस जब तरल गैस होखेला
बाँह में धरा के गगन होखेला
रूप नदी में
तेज धार होखेला
नाव में पाल बाँध के बदल जाला।