भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बाँसुरी मन के रोवे गजवला बिना / ब्रजकिशोर दूबे
Kavita Kosh से
Mani Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:54, 1 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ब्रजकिशोर दूबे |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पन्ना बनाया)
बाँसुरी मन के रोवे गजवला बिना।
गीत लोर हो गइल सब सुनवला बिना।।
आँगन में साधन के दियना बराइल
असरा के बाजी प जिनिगी धराइल
फूल कुम्हिला गइल सब चढ़वला बिना। बाँसुरी.....
ललसा के लत्तर बराबर फुलाइल
लाखन बे-सरधा के गंगा फफाइल
नेह-बिरवा सुखाइल पटवला बिना। बाँसुरी.....
सबुरो के डढ़िया टिकोरवा ना आइल
डँहकत परनवाँ उमिरिया ओराइल
रोज छछनेला जियरा जुड़वला। बाँसुरी.....
हँसलीं त बाकिर ऊ हँसिया छिनाइल
हमरा जिनिगिया के सरबस बिलाइल
मेघ उमड़ल ना धरती तपवला बिना। बाँसुरी.....
आइल अँजोरिया ना तनिको बुझाइल
केकरा सरपला से जिनिगी डहाइल
साध-सुगना ना बोला पढ़वला बिना। बाँसुरी.....