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दरीचा बे-सदा कोई नहीं है / साबिर ज़फ़र
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दरीचा बे-सदा कोई नहीं है
अगरचे बोलता कोई नहीं है
मैं ऐसे जमघटे में खो गया हूँ
जहाँ मेरे सिवा कोई नहीं है
रूकूँ तो मंज़िलें ही मंज़िलें हैं
चलूँ तो रास्ता कोई नहीं है
खुली हैं खिड़कियाँ हर घर की लेकिन
गली में झाँकता कोई नहीं है
किसी से आश्ना ऐसा हुआ हूँ
मुझे पहचानता कोई नहीं है