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रुख़ हवाओं का समझना चाहिए / गौरीशंकर आचार्य ‘अरुण’
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आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:35, 19 अक्टूबर 2013 का अवतरण
रुख़ हवाओं का समझना चाहिए ।
बादलों को फिर बरसना चाहिए ।
आँख ही यदि रास्ता देखे नहीं,
पाँव को ख़ुद ही संभलना चाहिए ।
क्या असर होगा फक़त यह सोचकर,
लफ़्ज़ को मुँह से निकलना चाहिए ।
कौन कहता है नहीं रखती असर,
आह को दिल से निकलना चाहिए ।
बात जीने की या मरने की नहीं,
वक़्त पर कुछ कर गुज़रना चाहिए ।
देख कर आँसू किसी की आँख में,
दिल अगर है तो पिघलना चाहिए ।
है कहाँ महफ़ूज़ राहें अब ‘अरुण’,
सोचकर घर से निकलना चाहिए ।