भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अब नहीं उगते कैक्टस में हाथ / जुगल परिहार

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:56, 19 अक्टूबर 2013 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अब नहीं उगते कैक्टस में हाथ
बचपन में मना करती थी
कहा करती थी माँ -
'मत मार बहन को
पाप लगेगा रे, पाप
देख, वह देख
वो काँटों वाला कैक्टस
उगा करत हैं उस में
पापी हाथ'
बच्चे डरते थे तब
लेकिन अब?
अब तो डरता नहीं कोई भी
हाँ,
उगते थे कभी, लेकिन
 अब नहीं उगते कैक्टस में हाथ

अनुवादः नीरज दइया