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और 'मैं' / अमृता भारती
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देह
एक कामना है अर्पण की
मन
टूटकर गिरे फूलों का ढेर
हृदय
एक प्रार्थना
प्रकाश और छाया की
और 'मैं'
एक ऐसा 'एकान्त'
जो इन सबसे गुज़र कर भी
अक्षुण्ण बना रहता है
सदा एक
सिर्फ़ एक ।