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मेरी यह तपस्या / अमृता भारती

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अब नहीं रहूँगी मैं
शाम के सन्दर्भों में
किसी रुकी हुईआहट
या स्पर्श के
किसी भी कम्पन में --

धूप या चाँदनी की तरह
मैं नहीं होऊँगी अभिव्यक्त
किसी आदमीके अन्दर
या किसी
आदमी के बाहर

इन छायाओं से अलग
कहीं और ही रहूँगी मैं

किसी स्पन्दित दृश्य में
प्रतिस्पन्दित हो रहे
अनेक दृश्यों में
अपने अन्दर
या
अपने बाहर
सुख और दुख के
सर्वव्यापी आलोक में

कहीं और ही रहूँगी मैं

मैं
और मेरी
यह तपस्या