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मेरे नाज़ुक सवाल में उतरो / ज़फ़र हमीदी
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मेरे नाज़ुक सवाल में उतरो
एक हर्फ़-ए-जमाल में उतरो
नक़्श-बंदी मुे भी आती है
कोई सूरत ख़याल में उतरो
फेंक दो दूर आज सूरज को
ख़ुद ही अब माह ओ साल में उतरो
ख़ूब चमकोगी आओ शमशीरो
मेरे ज़ख़्मों के जाल में उतरो
कुछ तो लुत्फ़-ए-तज़ाद आएगा
मेरे ग़ार-ए-ज़वाल में उतरो
ख़्वाह पतझड़ की ही हवा बन कर
पेड़ की डाल डाल में उतरो
मुज़्महिल रात और तन्हाई
काश ख़्वाब-ए-विसाल में उतरो
ऐ ‘ज़फ़र’ पेश है महा-भारत
आदमियत की ढाल में उतरो