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रीते-रीते मौसम में / पंखुरी सिन्हा
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उम्मीदों के गुज़र जाने के मौसम में
यहाँ-वहाँ दुबारा छला गया उसे
हर किस्म की कोशिश में
जहाँ मुक़म्मल होने थे
सारे सपने
जहाँ दुबारा नाकारा गया उन्हें
वहाँ मुड़कर देखते हुए
दुबारा सब कुछ को
बड़ी-बड़ी दुकानों को
जिनके इर्द-गिर्द बुने गये हज़ारों जाले
सपनों के, युद्ध के
हिंसा के
वहाँ मुड़कर देखना सब कुछ को
भयानक शीत लहरी के बाद की धूप में
जिन्होंने किया हो, सूरज के यूँ निकलने का इन्तज़ार
वो कर सकते हैं सवाल
लेकिन, गूँजता है खालीपन
सवाल का
एक भयानक नरसंहार के बाद।