भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मँहगाई / काका हाथरसी

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:35, 13 नवम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=काका हाथरसी }} जन - गण - मन के देवता , अब तो आँखें खोल महँग...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जन - गण - मन के देवता , अब तो आँखें खोल

महँगाई से हो गया , जीवन डाँवाडोल

जीवन डाँवाडोल , ख़बर लो शीघ्र कृपालू

कलाकंद के भाव बिक रहे बैंगन - आलू

कहँ ‘ काका ' कवि , दूध - दही को तरसे बच्चे

आठ रुपये के किलो टमाटर , वह भी कच्चे


राशन की दुकान पर , देख भयंकर भीर

‘ क्यू ’ में धक्का मारकर , पहुँच गये बलवीर

पहुँच गये बलवीर , ले लिया नंबर पहिला

खड़े रह गये निर्बल , बू ढ़े , बच्चे , महिला

कहँ ‘ काका ' कवि , करके बंद धरम का काँटा

लाला बोले - भागो , खत्म हो गया आटा