भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सावन का क्या बहार है जब यार ही नहीं / महेन्द्र मिश्र

Kavita Kosh से
Mani Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:51, 24 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेन्द्र मिश्र |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 सावन का क्या बहार है जब यार ही नहीं।
मवसम में लगी आग मददगार ही नहीं।

मवशमे बहार छा रहा बुलबुल कफस में है।
और मसत कबूतर का खरीददार ही नहीं।

टेसू कुसुम गुलाब ओ फूले है मालती
इन्साफ के बाजार में गुलजार ही नहीं।

अब तो महेन्दर क्या करूँ दिलदार ही नहीं।
वो प्यार भी देखा नहीं जहाँ खार ही नहीं।