भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्राणों का गान / त्रिलोचन

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:37, 14 नवम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=त्रिलोचन }} दर्शन हुए, पुनः दर्शन, फिर मिल कर बोले,<br> खोल...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दर्शन हुए, पुनः दर्शन, फिर मिल कर बोले,
खोला मन का मौन, गान प्राणों का गाया,
एक दूसरे की स्वतन्त्र लहरों को पाया
अपनी अपनी सत्ता में, जैसे पर तोले

दो कपोत दाएँ, बाएँ स्थित उड़ते उड़ते
चले जा रहे दूर, क्षितिज के पार, हवा पर,
उसी तरह हम प्राणों के प्रवाह पर स्वर भर
लिख देते अपनी कांक्षाएँ। मुड़ते मुड़ते

पथ के मोड़ों पर, संतुलित पदों से चलते
और प्राणियों के प्रवेग की मौन परीक्षा
करते हैं इस लब्ध योग की सहज समीक्षा।
शक्ति बढ़ा देती है, नए स्वप्न हैं पलते।

विपुला पृथ्वी और सौर-मंडल यह सारा
आप्लावित है; दो लहरों की जीवन-धारा।