भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हो पाता ऐसा / अर्चना भैंसारे

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:12, 2 नवम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अर्चना भैंसारे |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सोचती हूँ आजकल
पिता का चेहरा उदासीन क्‍यों है ?

माँ की आँखें इतनी बोझिल
जबकि हज़ारों हज़ार रंग हैं दुनिया जहान में ।

काश हो पाता ऐसा
सड़कों पर खेलते बच्‍चों की हँसी
कूदकर आ जाती रोशनदान से
आँगन में बिखरे होते
चिडियों के पर
बाड़े का जाम
उग आता, जाने पहचाने स्‍वाद के साथ
फेरी लगाता वही, दाढ़ीवाला दाजी
चूडियाँ ले लो री... की टेर लगाता
लौटता गली में
नेम-धरम, तीज-त्‍योहार, पुरानी चमक-गमक लिए
उतर आते
पिता के चेहरे और माँ की आँखों में ।

सोचती हूँ आजकल
अपने-अपने भीतर जाने क्‍या बो रहे हैं दोनों
कि इतनी काँटेदार झाडियाँ उग आई है सपनों के भीतर ।