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ओ प्यासे अधरोंवाली / गोपालदास "नीरज"

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ओ प्यासे अधरोंवाली ! इतनी प्यास जगा
बिन जल बरसाए यह घनश्याम न जा पाए !

गरजी-बरसीं सौ बार घटाएँ धरती पर
गूँजी मल्हार की तान गली-चौराहों में
लेकिन जब भी तू मिली मुझे आते-जाते
देखी रीती गगरी ही तेरी बाँहों में,

सब भरे-पुरे तब प्यासी तू,
हँसमुख जब विश्व, उदासी तू,

ओ गीले नयनोंवाली ! ऐसे आँज नयन
जो नज़र मिलाए तेरी मूरत बन जाए !

ओ प्यासे अधरोंवाली ! इतनी प्यास जगा
बिन जल बरसाए यह घनश्याम न जा पाए !

रेशम के झूले डाल रही है झूल धरा
आ आ कर द्वार बुहार रही है पुरवाई,
लेकिन तू धरे कपोल हथेली पर बैठी
है याद कर रही जाने किसकी निठुराई,

जब भरी नदी तू रीत रही,
जी उठी धरा, तू बीत रही,

ओ सोलह सावनवाली ! ऐसे सेज सजा
घर लौट न पाए जो घूँघट से टकराए !

ओ प्यासे अधरोंवाली ! इतनी प्यास जगा
बिन जल बरसाए यह घनश्याम न जा पाए !

पपीहे के कंठ पिया का गीत थिरकता है,
रिमझिम की वंशी बजा रहा घनश्याम झुका,
है मिलन प्रहर नभ-आलिंगन कर रही भूमि
तेरा ही दीप अटारी में क्यों चुका चुका,

तू उन्मन जब गुंजित मधुबन,
तू निर्धन जब बरसे कंचन,

ओ चाँद लजानेवाली ! ऐसे दीप जला
जो आँसू गिरे सितारा बनकर मुस्कराए !

ओ प्यासे अधरोंवाली ! इतनी प्यास जगा
बिन जल बरसाए यह घनश्याम न जा पाए !
बादल खुद आता नहीं समुन्दर से चलकर
प्यास ही धरा की उसे बुलाकर लाती है,
जुगनू में चमक नहीं होती, केवल तम को
छूकर उसकी चेतना ज्वाल बन जाती है,

सब खेल यहाँ पर है धुन का,
जग ताना-बाना है गुन का,

ओ सौ गुनवाली ! ऐसी धुन की गाँठ लगा
सब बिखरा जल सागर बन बनकर लहराए !

ओ प्यासे अधरोंवाली ! इतनी प्यास जगा
बिन जल बरसाए यह घनश्याम न जा पाए !