भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दीप और मनुष्य / गोपालदास "नीरज"

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:58, 14 नवम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गोपालदास "नीरज" |संग्रह=आसावरी / गोपालदास "नीरज" }} एक दिन...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक दिन मैंने कहा यूँ दीप से
‘‘तू धरा पर सूर्य का अवतार है,
किसलिए फिर स्नेह बिन मेरे बता
तू न कुछ, बस धूल-कण निस्सार है ?’’

लौ रही चुप, दीप ही बोला मगर
‘‘बात करना तक तुझे आता नहीं,
सत्य है सिर पर चढ़ा जब दर्प हो
आँख का परदा उधर पाता नहीं।

मूढ़ ! खिलता फूल यदि निज गंध से
मालियों का नाम फिर चलता कहाँ ?
मैं स्वयं ही आग से जलता अगर
ज्योति का गौरव तुझे मिलता कहाँ ?’’