Last modified on 5 नवम्बर 2013, at 12:12

सख़्त रेखाएँ / मनोज कुमार झा

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:12, 5 नवम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मनोज कुमार झा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{K...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

कल क्या होगा
ज़रा भी पता नहीं
यह जुमला एक नक़्शा भर है किसी उठने वाले भवन का
कुछ लकीरें मात्र जिस पर झोपड़ी कैसे बैठेगी यह अनिश्चित
ठोस कहें तो ऐसे कहें कि कल के खाने का भरोसा वहीं
फिर यह एक दरवाज़ा बन जाएगा उस घर का
जहाँ रात का रंग फट जाता है सुबह के घण्टों पहले ।

कल क्या होगा पता नहीं
एक ठूँठ वृक्ष फकत
है दरख़्त जिस पर पत्ते नहीं, फूल नहीं और काँटे भी नहीं
उसे देखो जिसने कहा कि आसमान होगा या छप्पर पता नहीं
तब जानोगे कि क्या होता है बरसते काँटों के बीच चलना ।