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अजब अभागों का कुनबा / मनोज कुमार झा

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अशुद्ध उच्चारणों ने कई मित्र दिए
उनमें से एक तो अक्षरों को राख कहता है
पिट कर चुप जाने से भी कई साथी मिले
एक ने तो कहा कि लड़ाई बहुत वक़्त माँगती है
और उतना वक़्त नहीं होता अन्धी० माता के सन्तानों को
हममें से कइयों को जब प्रियों ने तजा
तो मूर्ख कहा और हमने बस इतना सोचा
कि उन्हें इन्त्ज़ार करने का हुनर नहीं और हड़बड़ी की अजब लत
वर्ना उन्हें जानने की हूक उठती कि रात में जब नदियाँ रोती हैं
तो हम अभागे उसे कन्धा देते हैं जिनसे वो दिन-भर दुख सँभालती हैं ।