भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अजब अभागों का कुनबा / मनोज कुमार झा
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:15, 5 नवम्बर 2013 का अवतरण
अशुद्ध उच्चारणों ने कई मित्र दिए
उनमें से एक तो अक्षरों को राख कहता है
पिट कर चुप जाने से भी कई साथी मिले
एक ने तो कहा कि लड़ाई बहुत वक़्त माँगती है
और उतना वक़्त नहीं होता अन्धी माता के सन्तानों को
हममें से कइयों को जब प्रियों ने तजा
तो मूर्ख कहा और हमने बस इतना सोचा
कि उन्हें इन्त्ज़ार करने का हुनर नहीं और हड़बड़ी की अजब लत
वर्ना उन्हें जानने की हूक उठती कि रात में जब नदियाँ रोती हैं
तो हम अभागे उसे कन्धा देते हैं जिनसे वो दिन-भर दुख सँभालती हैं ।