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बीते लम्हे कशीद करती हूँ / फ़र्रुख़ ज़ोहरा गीलानी
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बीते लम्हे कशीद करती हूँ
इस तरह जश्न-ए-ईद करती हूँ
जब भी जाती हूँ शहर-ए-शीशागराँ
कुछ मनाज़िर ख़रीद करती हूँ
मैं हवाओं से दुश्मनी ले कर
कितने तूफ़ाँ मुरीद करती हूँ
मेरी आँखें मिरा हवाला हैं
अपनी आँखों की दीद करती हूँ
मिरे जज़्बे मिरी शहादत हैं
बहते आँसू शहीद करती हूँ
सुब्ह तारे को देख कर ‘फ़र्रूख़’
अपनी सुब्हें सईद करती हूँ