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अछूत की होरी / वंशीधर शुक्ल

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हमैं यह होरिउ झुरसावइ।
खेत बनिज ना गोरू गैया ना घर दूध न पूत।
मड़ई परी गाँव के बाहर, सब जन कहैं अछूत॥
द्वार कोई झँकइउ ना आवइ।
..हमैं यह होरिउ झुरसावइ।
ठिठुरत मरति जाड़ु सब काटित, हम औ दुखिया जोइ।
चारि टका तब मिलै मजूरी, जब जिउ डारी खोइ॥
दुःख कोई ना बँटवावइ।
..हमैं यह होरिउ झुरसावइ।
नई फसिल कट रही खेत मा चिरइउ करैं कुलेल।
हमैं वहे मेहनत के दाना नहीं लोनु न तेल॥
खेलु हमका कैसे भावइ।
..हमैं यह होरिउ झुरसावइ।
गाँव नगर सब होरी खेलैं, रंग अबीर उड़ाय।
हमरी आँतैं जरैं भूख ते, तलफै अँधरी माय॥
बात कोई पूँछइ न आवइ।
..हमैं यह होरिउ झुरसावइ।
सुनेन राति मा जरि गइ होरी, जरि के गई बुझाय।
हमरे जिउ की बुझी न होरी जरि जरि जारति जाय॥
नैन जल कब लैं जुड़वावइ।
..हमैं यह होरिउ झुरसावइ।
हाड़ मास जरि खूनौ झुरसा, धुनी जरै धुँधुवाय।
जरे चाम की ई खलइत का तृष्णा रही चलाय॥
आस पर दम आवइ जावइ।
..हमैं यह होरिउ झुरसावइ।
यह होरी औ पर्ब देवारी, हमैं कछू न सोहाइ।
आप जरे पर लोनु लगावै, आवै यह जरि जाइ॥
कौनु सुखु हमका पहुँचावइ।
..हमैं यह होरिउ झुरसावइ।
हमरी सगी बिलैया, कुतिया रोजुइ घर मथि जाय।
साथी सगे चिरैया कौवा, जागि जगावैं आय॥
मौत सुधि लेइउ न आवइ।
..हमैं यह होरिउ झुरसावइ।

रचनाकाल : १९३६ ई.