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दुख / प्रभात
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दुख मेरे भीतर
टहल रहा है
संकट की तरह
एकाएक नहीं आया है यह
बरसों चलने के बाद
पहुँचा है मुझ तक
इसके आने की आहट थी मुझे
अब जब आ ही गया है
बस ही गया है मुझमें
मेरे साथ रहने के लिए
एक ही जगह रहते हैं तो
सजल आँखें चार भी होती हैं
जीवन में मेरे हिस्से के
आकाश की तरह
हटा नहीं सकता इसे मैं
बदल नहीं सकता इसकी शक्ल-सूरत
कम अधिक नहीं कर सकता इसका ताप
निवेदन नहीं कर सकता इससे
सहनीय होने के लिए