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गुज़रते हुए-4 / अमृता भारती
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तेरे पैर
तुझे सिर तक निगल गए
व्यर्थ लोग तुझे आग पर रखते हैं
मैंने नहीं गाया था शोक-गीत
गुलाब के फूल के लिए
वृन्त से अलग
जो अटका रहा था देर तक
काँटों के बीच --
और अब हवा थी ।
मैंने नहीं समेटी थी ख़ुशबू
बिखर जाने दिया था उसे
चाहे जहाँ
कहीं भी
हवा की हथेली से...
लौटकर मैं पटरियों के पार
कुछ क्षण रुकी थी
सम्बन्ध के बग़ीचे में
झुकी टहनियों के पास
और निकलते वक़्त
मैंने दिशाओं से
अपने वस्त्र माँगे थे ।