भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गुज़रते हुए-1 / अमृता भारती

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:16, 9 नवम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमृता भारती |अनुवादक= |संग्रह=आदम...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शकुन के लिए जिसकी मृत्यु पैरों से शुरू हुई थी

तेरे शरीर का स्फ़टिक
अब मिट्टी की तरफ़ लौटने लगा है

अन्धेरे का बारीक कीड़ा
तेरे पैर के अँगूठे से ऊपर चढ़ता है
नसों में
जिसे तू काटती है
और वह दोमुँहा होकर और तेज़ी से पलटता है --

तू सुबह के किरन भरे अधर चूमना चाहती है
और सोचती है
'आज वह ज़रूर मेरे तकिए को छुएगी'
वह दरवाज़े के काँच से गुज़रकर
तुझे देखने आती है

उसकी हँसी सुनकर
तू धीरे से हिलती है
पर तेरी करवट वह बदल लेती है

अब फिर एक लम्बा दिन है
आवाज़ों से चिटकता हुआ
फिर एक लम्बी रात है
तेरी नसें कुतरती हुई ।