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चार शब्द-दीप / सिद्धेश्वर सिंह

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1

कुछ है
जिससे जन्म लेती है रोशनी
कोई है
जो अपदस्थ करता है
अन्धकार के क्रूर तानाशाह को
कोई है
जो जलाता है अपना अस्तित्व

तब उदित होती है
रात के काले कैनवस पर एक उजली लकीर ।

2

इस साधारण से शब्द का
पर्यायवाची नहीं है अन्धकार
न ही
यह रंगमंच है किसी कुटिल क्रीड़ा का

रात का होना है प्रभात
और सतत जलता हुआ दीप ।

3

चाहे जितनी भी बड़ी हो
अन्धकार की काली स्लेट
चाहे जितना भी विस्तृत हो तिमिर-लोक
भले आकाश की कक्षा में अनुस्थित हो चाँद

फिर भी
धुँधले न हों
उजाले के अक्षर
और ख़त्म न हो रोशनी की चॉक ।

4

बनी रहे
उजास की अशेष आस
शेष न हो
स्वयं पर सहज विश्वास

आओ करें
रोशनी को राजतिलक
तम को भेज दें वनवास ।