भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गुदाज़-ए-दिल से परवाना हुआ ख़ाक / हकीम अजमल ख़ाँ शैदा

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:49, 12 नवम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हकीम अजमल ख़ाँ शैदा }} {{KKCatGhazal}} <poem> गुद...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गुदाज़-ए-दिल से परवाना हुआ ख़ाक
जिया बे-सोज़ में तो क्या जिया ख़ाक

किसी के ख़ून-ए-नाहक़ की है सुर्ख़ी
रंगेंगी दस्त-ए-क़ातिल को हिना ख़ाक

निगह में शर्म के बदले है शोख़ी
खुले फिर रात का क्या माजरा ख़ाक

लबों तक आ नहीं सकता तो फिर मैं
कहूँ क्या अपने दिल का मुद्दआ ख़ाक

बुलंदी से है उस की डर कि इक रोज़
करेगी आशियाँ बर्क़-ए-बला ख़ाक

न देखा जिन का चेहरा गर्द-आलूद
पड़ी है उन पे अब बे-इंतिहा ख़ाक

बयाबाँ में फिरा करते हैं ‘शैदा’
हक़ीक़त में है उल्फ़त की दवा ख़ाक