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सुना कर हाल क़िस्मत आज़मा कर लौट आए हैं / हरी चंद अख़्तर

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सुना कर हाल क़िस्मत आज़मा कर लौट आए हैं
उन्हें कुछ और बेगाना बना कर लौट आए है

फिर इक टूटा हुआ रिश्ता फिर इक उजड़ी हुई दुनिया
फिर इक दिलचस्प अफ़्साना सुना कर लौट आए हैं

फ़रेब-ए-आरज़ू अब तो न दे ऐ मर्ग-ए-मायूसी
हम उम्मीदों की इक दुनिया लुटा कर लौट आए हैं

ख़ुदा शाहिद है अब तो उन सा भी कोई नहीं मिला
ब-ज़ोम-ए-ख़ुवेश इन का आज़मा कर लौट आए हैं

बिछ जाते हैं या रब क्यूँ किसी काफ़िर के क़दमों में
वो सज्दे जो दर-ए-काबा जा कर लौट आए हैं