भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दिन और रात / फ़्योदर त्यूत्चेव
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:12, 17 नवम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=फ़्योदर त्यूत्चेव |अनुवादक=वरया...' के साथ नया पन्ना बनाया)
देवताओं की उच्च इच्छाओं ने
बिछा दिया है स्वर्णांचल
आत्माओं के रहस्यमय संसार
और अनाम इस गह्वर पर ।
यह दिन चमकता हुआ उसका आँचल है,
यह दिन-- जीवन है धरती के प्राणियों का,
रुग्न आत्माओं का उपचार है
और मित्र है मनुष्य और देवताओं का ।
लेकिन निष्प्रभ पड़ जाता है दिन,
प्रवेश करती है रात
अशान्त दुनिया के ऊपर से
हटा देती है स्वर्णांचल
फाड़कर दूर फेंक देती है उसे,
निर्वस्त्र हो जाता है अथाह आकाश
अपने समस्त अन्धकार और भय के साथ,
उसके और हमारे बीच रहती नहिम कोई बाधा
इसीलिए तो हमें भयावह लगती है रात।
(1883)