भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम / व्लदीमिर मयकोव्स्की

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:24, 23 नवम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=व्लदीमिर मयकोव्स्की |अनुवादक=रा...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रंगरेलियों से रंगरेलियों तक गुलछर्रे उड़ाते तुम
एक गुसलख़ाने और गर्म आरामदेह पाख़ाने के मालिक !
तुम्हारी यह मजाल कि जार्ज तमगों की बाबत
अपनी चापलूस मिचमिचाती आँखों से अख़बार में पढ़ो ?

क्या तुम्हें एहसास है कि ढेर तमाम छुटभैये
सोच रहे हैं, कैसे ठूँस कर भरा जा सकता है तुम्हारा पेट
जबकि अभी-अभी ही शायद लेफ़्टीनेन्ट पित्रोफ़
बम से अपनी दोनों टाँगें गँवा चुका है ।

फ़र्ज़ करो उसे लाया जाए वध के लिए
और अपनी लहुलुहान हालत में वह अचानक देखे तुम्हें
तुम्हारे मुँह से अब भी सोडावाटर और वोद्का की
लार टपक रही है
और तुम गुनगुना रहे हो सिविरयानिन का गीत ।

तुम जैसों के लिए अपनी जान हलाक़ करूँ
औरतों के गोश्त, दावतों और कारों के मरभुक्खों ?
बेहतर है मैं चला जाऊँ मास्को के शराबख़ानों में
रंडियों को अनन्नास का रस पिलाने ।
 
1915