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कवि धरम / कन्हैया लाल सेठिया

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हुया घणा ही मोटा कविसर
जका करी कविताई
दियो आसरो बां नै
बांरी बिड़द बड़ाई गाई,

जका दिखायो
रण खेतां में तलवारां रो पाणी
बिना शीश रै लड़ते धड़ री
कीरत घधी बखाणी,

जका जुद्ध स्यूं भाज्या कायर
बां री करी खिंचाई
कुळ रा कळख बताया बांनै
खोटी खरी सुणाई,


जका दियो धन मान सराई
बै बांरी दातारी
लाख पसाव दिया गज घोड़ा
 बां री मैमां गाई

पण बां में कोई सो बणियो
बीं परजा रो भीड़ी
लागां बागां लगा जकी नै
घणी भोगता पीड़ी

कियां लुंट लेता निबळां री
लूंठा खरी कमाई
दिख्यां
फूठरी नार पुगाता
गुरगा जियां तिंयांई

जकी रखेलां रा जाया बै
मिनखां जूण जिनावर
खड़ता बां रा खेत बापड़ा
बिना मोल रा चाकर

 देता बां नै खावण सारू
लूखी सूखी रोटी
जे चढ़ ज्याती कोई निजरां
बड़ी हुवो’क छोटी

निज जायोडयां सागै कुकरम
करता बै इन्यासी
बां निलजां नै जका नै फीठया
धिक बां री कविताई

जे करवाता मदछकियां नै
भर’र चूंठिया चेतो
तो बै कवि रो धरम निभाता
जग जस बां नै देतो !