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रेत आषाढ़ में / अश्वनी शर्मा

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आषाढ़ में या सावन में
जब भी उठेगी तीतरपंखी बादली
चलेगी पुरवाई
थकने लगी होगी
पगलाई डोलती रेत

तब
अनंत के आशीष-सी
मां के दुलार सी
कुंआरे प्यार-सी
पड़ेगी पहली बूंद

रेत पी जायेगी
उसे चुपचाप
बिना किसी को बताये
बूंद कोई मोती बन जायेगी

उठेगी दिव्य गंध
कपूर या लोबान-सी
महक उठेगा रेगिस्तान
श्रम-क्लांत युवती के
सद्य स्न्नात शरीर-सा
रेत की खुशबू
फैल जायेगी दिगदिगंत
रेत की थिरकन महसूस होगी
आदमी के मन में
गायेगा-नाचेगा
मना लेगा गोठ

लद जायेगा नीम निंबोलियों से
झूले पर टंगी
जवान छोरियों की हंसी-ठिठोली
याद कर मुस्कुरायेगा

खिलखिलाती जवानी
शायद भर जाय
उसकी बूढ़ी नसों में
कोई हरारत

यदि बेवफा रहा बादल
 तो रेत का दुःख दिखेगा
धरती के गाल पर
अधबहे परनाले के रूप में

बादल हुआ अगर पागल प्रेमी
तो हरख-हरख गायेगी रेत
पगलायी धरती उगा देगी कुछ भी
जगह-जगह, यहां वहां
हरा, गुलाबी, नीला, पीला
काम का, बिना काम का
कंटीला, मखमली, सजीला
या जहरीला भी

धूसर रेत पर चलेंगे हल
हरी हो जायेगी
धरती की कोख