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रेत माघ में / अश्वनी शर्मा

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रजाई में दुबका सूरज
जब देर से उठेगा
तब बर्फ-सी हुई रेत भी
अलसाई पड़ी रहेगी, अकारण
बस आलस्य ओढे हुए

सीली रेत
 सिमट आयेगी मुट्ठी में
संवेदन शून्य
ऑपरेशन टेबल पर पड़े
मरीज-सी

कोहरा कर रहा होगा
गुप्त मंत्रणा
विश्वस्त सिपहसालारों से
साम्राज्य विस्तार की

ऊंट या भेड़
के बालो को कतरकर
चारों ओर से चुभने वाले
कंबलनुमा टुकड़े को ओढ़े
कुनमुना रहा होगा बचपन
खंखार रहा होगा बुढ़ापा
पड़े होंगे जवान शरीर चिपककर
परस्पर ऊष्मा का
आदन-प्रदान करते हुए

दुबकी होंगी भेड़ें
ऊन की बोरी बनी
कोई कुत्ता नहीं भौंकेगा
अकेला टिमटिमा रहा होगा
भोर का तारा

बस मस्ताया ऊंट
जीभ लटकाकर
निकाल रहा होगा विचित्र आवाजें
कर रह होगा प्रणय निवेदन

बूढ़ी दादी राम के नाम के साथ
बहुओं के नाम का जाप भी
कर रही होगी मन ही मन

माघ की अलस भोर में
सुन्न पड़ा होगा रेगिस्तान
बर्फ में डुबोई
अंगुली-सा।