रेत पर लिखी इबारत / अश्वनी शर्मा
कितना जीवन होता है
रेत पर लिखी किसी भी इबारत का
रेत को यूं ही सी समझकर
लिख जाते हैं हम
बड़ी-बड़ी बातें कई बार
जैसे कोई फकीर मौज में
कह जाता है दार्शनिक बात
सरल से शब्दों में
सीधी सादी दीखती बात
की गहराई का जब पता चलता है
तब रह जाते हैं हम स्तब्ध
ठगे से
वैसे ही रेत पर
लिखी इबारत
अल्पजीवी होते हुए भी
इशारा कर देती है
टीलों के बीच से
निकलती आंकी-बांकी
पगडंडियों की ओर
उपनिषदों के सूत्र वाक्य-सी
दिशाबोध हीन हम बढ़ जाते हैं
इन पगडंडियों पर
ये न जानते हुए कि आखिर जा कहां रहे हैं हम
ये पगडंडियां कभी खत्म नहीं होती
बस खत्म हो जाता है
रेगिस्तान में चलते हुए
एकमात्र संबल
साथ रखा पानी
रेत की इबारत ही नहीं
अल्पजीवी है सबकुछ
आदमी,राष्ट्र,सभ्यता
वैभव, पराक्रम, सम्मान
सच केवल उतना ही है
जितनी देर रहती है इबारत
रेत पर
या अंतहीन पगडंडियां।