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कुछ आँसू तक पा सके नहीं / विमल राजस्थानी

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जिनने हमको आजादी दी अपने लोहू की धार से
कुछ आँसू तक पा सके नहीं अपनी कृर्तघ्न सरकार से
चौबीस अगस्त शहीदों की
यादों की बन्द दुकान है
जिसको समाधि -स्थल कहते
वह कोरा कब्रिस्तान है
हमदर्दी जतलायी जाती बस भाषण धूँआधार से
इनको क्या कुछ लेना-देना बलिदानी के परिवार से
विधवा रोती है-रोने दो
माओं को ठठरी होने दो
असमय बूढ़े हो गये पिताओं-
को अपने शव ढोने दो
रोती बहनों को वंचित रहने दो राखी -त्योंहार से
मुन्नों को तरस-तड़पने ‘बाबू’ के प्यार-दुलार से
जिनने भारत मा की जय कह
फाँसी के फन्दे चूमे थे
हो गये निछावर माया-मोह-
बिसार, मरण वर, झूमे थे
अपनों से भी ज्यादा सम्मानित होंगे जो पीछे छूटे
उम्मीद लगाये बैठे थे आजादी के भिनसार से
सब स्वप्न भंग हो गये
मुफलिसी ही हिस्से में आयी है
गोरों से कहीं अधिक ये काले-
शासक क्रूर -कसाई हैं
अपने कुत्तों तक को नहलाते हैं जो पय की धार से
उनको क्या मतलब भला शहीदों के उजड़े घर -बार से
उनको तो मतलब है केवल बस चाँदी की दीवार से
अपने कुल के वैभव से, अपने कूप सदृश संसार से
जिनके बलिदानों के बल पर
बैठै सत्ता-सिंहासन पर
दोनों हाथों से लूट -लूट
भरते सिक्कों से अपने घर
ये ईंट नींव की जब करवट लेगी, कंगूरे टूटेंगे
कब तक बच पाओगे इनकी आहों के अग्नि-प्रहार से
सारा साम्राज्य भले ले लो, सारा नाटक खुल कर खेलो
चेतो अब भी,दो अर्ध्य इन्हें सच्चे आँसू की धार से