भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जिस देश में गंगा बहती है / विमल राजस्थानी

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता २ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:53, 10 दिसम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विमल राजस्थानी |संग्रह=इन्द्रधन...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जिस देश में गंगा बहती है उस देश का सुन लो अफसाना
यह राम-कन्हैया की धरती
गौतम-दधीचि का देश है यह
गीता-रामायण की जननी
वेदों का शुभ संदेश है यह
धर्मो का गढ़ है, जंगल है-
तीर्थो का, भीड़ शिवालों की
पग-पग पर कीर्त्तन होते हैं
धुन ढोलक, डफली, झालों की
टुकड़े-टुकड़े था देश बटा
ढेरों राजे-रजवाड़े थे
धूर्तो ने अपने मतलब के-
मजहब के झंडे गाड़े थे
राजे-रजवाड़े तो टूटे
पर धर्मो का भंडार रहा
जो भी आगे आया उसने-
अपने को ही को भगवान कहा
है भीड़ यहा भगवानों की
किस-किस को शीश नवायें हम
लाउडस्पीकर के मारे
कैसे पंचम में गायें हम
दिन भर तो रोटी की चिन्ता, रातों की नींद हराम यहा
कैसा पढ़ना, कैसा लिखना, कैसा कुछ मस्ती में गाना
जिस देश में गंगा बहती है उस देश का सुन लो अफसाना
घर-घर रामायण होती है
पर राम नहीं बनता कोई
मरने वाले के कानों में
गीता के पद धुनता कोई
कोई वेदों का व्याख्याता
कोई पुराण का गायक है
कोई पेशेवर उपदेशक
निज उदर-पूर्त्ति उन्नायक है
दिन भर तो जेबें कटती हैं
रातों को धर्म उपजता है
कोई बोतल को तो कोई-
कोठे वाली को भजता है
पैसे की फैली है माया
पैसा ही भाई-बन्धु यहा
पैसा ही पुरूष पुरातन है
पैसा ही है ईमान यहा
पैसा ही सुख का सागर है
पैसा ही है जन्नत-दाता
पैसा अमृत की गागर है
यदि पैसा है तो ‘पावर’ है
‘पावर’ है तो नर ईश्वर है
इस देश ने पैसे ही को मा-बाप-सखा सरबस माना
जिस देश मे ंगंगा बहती है उस देश का सुन लो अफसाना
सूरज पूरब से उगता है
चलकर पश्चिम में जाता है
लेकिन फैसन का सूरज तो
पश्चिम से पूरब आता है
हिन्दी की चिन्दी उड़ती है
बस गिटपिट-गिटपिट होती है
(कसी है चुनौटी पाकिट में-
पतलून के नीचे धोती है)
हर रूप विचित्र यहाँ देखो
सरकस के खेल यहाँ देखो
औरतो के हाथों मर्दो की-
है दबी नकेल यहाँ देखो
‘साये’ का साया जब सिर हो
तब पाक गरेबाँ क्या होगा?
(हर शाख पै उल्लू बैठे हैं
अंजामे-गुलिस्तां क्या होगा?)
इससे तो बेहतर था पैदा होने से पहले ही मर जाना
जिस देश में गंगा बहती है उस देश का सुन लो अफसाना
कल तक जो झंडे ढोते थे
नभ-यान उन्हें अब ढोता है
सोने के अंडे देते हैं
चमचम चाँदी का खोता है
बीबी-बेटों की बात दिगर
चमचे तक नखरे करते हैं
है नाम ‘नयन सुख’ पर अंधे-
वोटर उन पर - ही मरते हैं
चोरों को गद्ी देते हैं
बालू में नौका खेत हैं
अंधे बन वोट गिराते हैं
कुछ रुपयों पर बिक जाते है
नागों को दूध पिलाते हैं
कुत्तों-सा पूँछ हिलाते हैं
फिर मरते महंगी के मारे
दिन में भी दिखते हैं तारे
जयघोष विजेता करते हैं
उनके होते वारे-न्यारे
कर-भार कमर को तोड़ रहा
पिसता है मध्यम-वर्ग, मगर-
पूँजिपति पैसे जोड़ रहा
चूसता खून कतरा-कतरा
पग-पग पर प्राणों का खतरा
रक्षक ही भक्षक बन जाता
जन-सेवक तक्षक बना जाता
बिन पैसे न्याय न मिल पाता
है सत्य सिहरकर अकुलाता
कवि-लेखक तक बिक जाते है
केवल प्रशस्तियाँ गाते हैं
जो सरस्वती के बेटे हों
यदि वे भी नर्क लपेटे हों
वह देश न क्यों कर डूबेगा
अन्याय वहाँ कब कम होगा
यह मात्र बाढ़ का पानी है
है केवल म्यान स्वदेशी,
गर्दन पर तलवार पुरानी है
यह सत्य नहीं क्या तुम बोलो
चुप क्यों? अब भी तो मुँह खोलो
कब तक घुट कर दम तोड़ेगे?
पत्थर पर मस्तक फोड़ोगे
ऊपर वाला भी बहरा है
मन्दिर पर धन का पहरा है
भगवान भला क्या कर लेगा
यह सिन्धु पतन का गहरा है
है पाप भंयकर चुप रहना
मन ही मन समझो क्या करना
कैसे होगी जन-क्रांति जुर्म यहाँ खुलाशा बतलाना
जिस देश में गंगा बहती है उस देश का सुन लो अफसाना