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कितने शिकवे गिल हैं पहले ही / फ़ारिग बुख़ारी
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कितने शिकवे गिल हैं पहले ही
राह में फ़ासले हैं पहले ही
कुछ तलाफ़ी निगार-ए-फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ
हम लुटे क़ाफ़िले हैं पहले ही
और ले जाए गा कहाँ गुचीं
सारे मक़्तल खुले हैं पहले ही
अब ज़बाँ काटने की रस्म न डाल
कि यहाँ लब सिले हैं पहले ही
और किस शै की है तलब ‘फ़ारिग़’
दर्द के सिलसिले हैं पहले ही