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टूण्ड्रा प्रदेश का सच / विपिन चौधरी

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जीवन को
अपनी सदाबहार हरियाली तज कर
अचानक से टूण्ड्रा प्रदेश में रूपान्तरित होते हुए
मैंने देखा

देखते-देखते वह किसी अप्रत्याशित जादू की तरह बौना हो गया
यह लगभग-लगभग उन दिनों की बात है
जब प्रकृति और प्राणी आपसी बगावत की कश्मकश में थे

सपनों की मृग-मरीचिका से बचने के लिए
छोटी मुनियाँ दाईं तरफ करवट लेकर सोने लगी थी

जन्मपत्री में बताए दिशा-निर्देशानुसार मैंने
मोर-पँख अपने सिरहाने रख लिए थे

बौनेपन में उतरने ही
जीवन ने इस कदर समाधी धारण कर ली
कि नई ज़मीन की कच्ची-पक्की, जली-भुनी सभी मन्त्र-सिद्ध तरकीबें उसे रट गईं
और
बाहर और भीतर के बीच मध्यस्थता स्थापित कर ली

वह नज़ारा देखते ही बनता था जब वह अपने चेहरे पर पूरे ओज के साथ
दिन-दहाडे अपनी सुविधापूर्वक भीतर प्रविष्ट हो जाता
और अपनी सुविधापूर्वक तेज़ी के साथ बाहर की दुनिया में गोते खाने लगता

उसकी काई में फिसलने की सारी सुविधाएँ थी
काँटेदार झाडियाँ से बिना खरोंच के निकल पाने की उम्मीद बेमानी थी
फिर भी मैं वहाँ अपनी आदतनुसार स्थाई रूप से जम गई

उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव तक
एक से एक नयनाभिराम नज़ारे मेरी आँखों के सामने थे
पर उस सर्द बौनेपन में मेरे दिमाग से लेकर
आत्मा तक पर सफ़ेद बर्फ़ जम चुकी थी और बौनापन मुझ पर भी भारी पड़ने लगा

जीवन के बौनेपन की लेफ़्ट-राईट और तमाम मक्कार कलाबाज़ियों देख चुकने को अभयस्त हो चुकी ये आँखें
उधर देखने लगी जहाँ
जहाँ एक रेगिस्तान आँखों में इन्तज़ार लिए अब भी खडा था ।