भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दूरियाँ / विपिन चौधरी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:16, 15 दिसम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विपिन चौधरी |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरी गर्दन
तुम्हारे कन्धे
प्रेम में बस
इतना फ़ासला ही काफ़ी है
हमारी नज़दीकियों का क़िस्सा
प्रेम के आँगन में उतरने के बाद
हर बार एक नया आकार ले बैठता है
हर बार इस नए क़िस्से की नोक-पल
दुरुस्त करनी पड़ती है
जब हमारे बीच की दूरियों को फीता
नाप नहीं सका
तो फ़ासलों का मीलों लम्बा सिद्धान्त
सिरे से जूठा पड़ गया
जब दूरियों ने फ़ासलों को
मापने की कोशिश की
तो प्रेम के पाँवों पड़ा
जूता छोटा पड़ने लगा
वैसे भी जीवन को
प्रेम में घोल देने से
कभी अच्छा ज़ायका नहीं बन पाया
वैसे ही जैसे
लम्बे अरसे से हमने सपनों का तिलिस्म जगाया
पर वहाँ से कोई राजकुमार प्रकट नहीं हुआ
एक प्रेत जरूर उतरा
जिसे ठीक से हमारी नाज़ुक गर्दन दबानी भी नहीं आई