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आस्थाओं का मुसाफ़िर खो गया / रमेश 'कँवल'
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आस्थाओं का मुसाफ़िर खो गया
रास्तों की बत्तियों को क्या हुआ .
भावनाओं के समुन्दर से परे
अक्षरों के हुस्न ने जादू किया .
दिल के दरवाजे़ की सांकल खुल गर्इ
दस्तकों के साथ इक चेहरा बढ़ा .
पत्थरों पर घास यूं आर्इ उभर
जैसे गहरे ध्यान से साधू जगा
ज़िन्दगी का कोप है दहलीज पर
मेरे तन ने एक वर्जित फल चखा
आदिवासी औरतों के गांव में
थोड़े दिन ही ख़्वाब का मौसम रूका
जल बुझी सांसों की सारी तीलियां
तब खंडर यह उम्र का रौशन हुआ
इक शिला थी, एक था पत्थर 'कँवल'
दोनों के संघर्ष से चूल्हा जला