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शाम हुई क़िस्तों में बिखरते सूरज का मंज़र उभरा / रमेश 'कँवल'

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शाम हुर्इ क़िस्तों में बिखरते सूरज का मंज़र1 उभरा
देखते देखते स्याह समुंदर में इक सुर्ख नगर डूबा.

मुजरिम ही तो मुंसिफ़2 भी था आखिर मैं सच क्या कहता
दोबारा मक़तल3 में पहुंचा, फिर मुझ पर महशर4 गुजरा

छाल दरख़्तों की पहने जब लोग गुफाओं में ख़ुश थे
सहने-तसव्वुर5 में सदियों पीछे का वह मंज़र झूमा

मेरे पीछे वहमो-गुमां6 की आसेबी7 आवाज़ें थीं
अंदेशों के जंगल से मैं रात बहुत डरकर निकला

नैन मेरे खिड़की से किसी को देख रहे थे जाते हुये
और शिकन की चादर ओढ़े घर में इक बिस्तर तन्हा8 .

रात की रानी महकी कोर्इ आया दिल मदहोश हुआ
क़ुर्ब9 की ख़ुशबू फैली पल में ख़्वाबों का साग़र छलका

कांच के घर में बंद था मैं, आवाज़ किसी की क्या सुनता
तुम तो 'कँवल' मजबूर नहीं थे, तुमने न क्यों पत्थर फेंका। .


1. दृश्य 2. न्यायाधीश 3. वधस्थल 4. प्रलय-कोलाहल, 5. कल्पनाकाआंगन 6. भ्रम-भ्रांति
7. भुतहा 8. एकाकी 9. समीपता-निकटता।