Last modified on 4 जनवरी 2014, at 13:17

पेड़ और छाया / गुलाब सिंह

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:17, 4 जनवरी 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गुलाब सिंह |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatNav...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

पेड़ मेरा था मगर
छाया तुम्हारे द्वार पर थी
क्या हुआ भाई मेरे कि
बीच में दीवार कर दी

चाहिए थी धूप दो पल
दो पलों छाया
पेड़ सूरज वही अपने
बीच में से कौन आया

मिटाकर सम्वाद सारे
मौन को लम्बी उमर दी

तनी हरदम रही अपने
अहं की पूरी प्रत्यंचा
ठूँठ ही रिश्ते रहे
खिलने न पाया कोई गुंचा

जय पराजय कुछ न दीखी
दिखा बस केवल समर ही

तीन घर के गाँव में
जलते रहे हैं तीस चूल्हे
जल गयी बारात सारी
अश्व से उतरे न दूल्हे

खोदते रह गए नीवें
उठ न पाया एक घर भी