भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

किसी की आँखों में बेहद हसीन मंज़र था / रमेश 'कँवल'

Kavita Kosh से
Mani Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:28, 4 जनवरी 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमेश 'कँवल' |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGhaz...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

किसी की आंखों में बेहद हसीन मंज़र था
मेरा बदन था जज़ीरा1 वो इक समुंदर था

वो जलते पंख लिये बढ़ रहा था मेरी तरफ़
मेरी रगों में ठिठुरता हुआ दिसंबर था

जो एक जुगनू सा बुझता रहा, दमकता रहा
वो अजनबी तो शनासाओं2 से भी बेहतर था

उदास सूर्यमुखी खो गर्इ थी सूरज में
थकन से चूर मगर रौशनी का बिस्तर था

बराय-नाम तो पानी था उसकी चारो तरफ़
मगर जो ठहरातो सहरा3 में वहशनावर4 था

अजीब बात बतार्इ है जोगनों ने हमें
वो बूढ़ा साधू नहीं खौफ़ नाक खंजर था

'कंवल’ थीं तेज़ हवायें मेरे तआकुब5 में
मै अपने वक्त का जलता हुआ कलेंडर था


1. द्वीप-टापू 2. परिचित, 3. मरूथल, 4. तैराक,
5. अनुसारण-अनुधावन।